दृश्य एक
दफ्तर के नीम अँधेरे कमरे में धीरे-धीरे रोशनी बढ़ती है। कमरे में एक टेबिल
और उसमें एक तरफ एक विशिष्ट कुर्सी और दूसरी तरफ तीन सामान्य कुर्सियाँ
पड़ी हैं। बगल में एक रैक जिसमें तरतीब से कुछ किताबें हैं। टेबिल पर कुछ
फाइलें,
एक इंटरकॉम और एक टेलीफोन है। विशिष्ट कुर्सी के पीछे एक बड़ा-सा मुखौटा
जड़ा है। इस कुर्सी पर बिल्कुल अधेड़ उम्र का लगभग 52 की वय का एक व्यक्ति
बैठा हुआ है। वह निम्न पत्र पढ़ता हुआ दिखाया जा रहा है -
'मैंने स्वस्थचित्त से आत्मवध का निर्णय लिया है। मुझे किसी से कोई शिकायत
नहीं है, मेरे पीछे किसी को दोषी न ठहराया जाए। मुझे अफसोस है कि ऐसा निर्णय
लेकर मैं पिंकी को अवांछित कष्ट दे रहा हूँ, परंतु इस अकारण अवसाद ने जीवन
दुर्वह बना दिया है। जीने का कोई अर्थ समझ नहीं आता, इसलिए मर रहा हूँ।
(मेज पर पेपरवेट से कागज दबाता है और सामने की कुर्सी पर बैठकर दर्शकों को
संबोधित करता है।)
'मैं अमर कौशिक हूँ। सरकार की डुगडुगी और डंका पीटने वाले इस दफ्तर में मँझोली
हैसियत का अफसर हूँ। मैंने बड़ी तरक्की की है। छोटे पद पर भरती हुआ था लेकिन अब
आप देख ही रहे हैं, यह कुर्सी मेरी है।'
(कार्यालय के बाहरी दरवाजे की ओर इंगित करता हुआ।)
'उधर नेमप्लेट लगी है। मैं अपना बयान पढ़ चुका हूँ। खिझाने की हद तक सादा है न,
बिल्कुल काव्यहीन और गरिमाविहीन! मैं चाहता तो आर्थर कोयेस्लर और माकोवस्की का
नाम ले सकता था। वे प्रख्यात आत्महत्यारे हैं। कोयेस्लर का बयान पढ़िएगा तो
आपकी खुद की तबियत आत्महत्या करने की हो जाएगी, इतना प्रेरक और मोहक है उसका
अंतिम दस्तावेज। लेकिन मैं यह सब नहीं करूँगा। बड़ी ईमानदारी से मैं जा रहा
हूँ। यह कागज मैं मेज पर रखे जा रहा हूँ। आत्मवधस्थल यहाँ से आधे घंटे की दूरी
पर है। बहुत मुमकिन है कि यह कागज कोई देखे ही नहीं, अगर देखेगा भी तो उसे
क्या पता, मैं कहाँ जा रहा हूँ और कैसे मरूँगा? मुझे पूरी उम्मीद है कि मुझे
कोई बचा नहीं पाएगा।'
(उठकर जाने का उपक्रम करता है। नेपथ्य से मिली-जुली आवाजें आती हैं, '
हम सब भी अलग-अलग और साथ-साथ अमर कौशिक को आधे घंटे का समय देते हैं।'
पात्रों का अलग-अलग तीव्र क्रम में स्टेज पर आगमन। सबसे पहले एक मोटी
थुलथुल विस्तीर्ण वक्षस्थलवती,
बोर सी दिखने वाली,
पिंकी जैसे असंभव नाम वाली इक्यावन बरस की महिला का आगमन, '
मैं पिंकी हूँ।'
कहकर मंच से तुरंत बाहर हो जाती है। इसी तरह से '
क', '
ख', '
ग',
नामधारी इकहरे बदन के तीन युवक जिनकी आयु तीस से पैंतीस वर्ष के बीच हो
सकती है,
मंच पर आते हैं और उसी तरह अपना नामोच्चारण कर चले जाते हैं। अंत में एक
चपरासीनुमा लड़का आता है और कहता है, '
मैं अमित हूँ।'
उसके जाते समय एक आवाज आती है, '
मैं अशरीरी हूँ।'
वह चौंक कर पलट कर इधर-उधर देखता है और फिर कुर्सी पर जड़े मुखौटे की ओर
संदिग्ध निगाहों से ताकता बाहर हो जाता है।)
दृश्य दो
(लकड़ी के स्क्रीन से कार्यालय का हिस्सा ढक दिया जाता है,
ड्राइंगरूम नजर आता है। अमर सोफे पर बैठा हुआ है। गंभीर चिंतामग्न जैसा।
पत्नी पिंकी प्रवेश करती है,
जिसकी ओर वह इतनी प्रत्यक्षतापूर्वक देखता है कि लगता है देख ही नहीं रहा
है।)
पिंकी :
कुछ चाहिए?
अमर :
न।
(जेब से सिगरेट निकालता है और उँगलियों में फँसा लेता है। इशारा समझते हुए
पत्नी उठती है और माचिस लेकर आती है। सिगरेट जलाकर कश लेकर ढेर-सा धुआँ
फेंकता है। इस धुएँ से उत्साहित होती हुई पत्नी बात शुरू करती है)
पिंकी :
अमित जाना चाहता है।
अमर :
कहाँ?
पिंकी :
कहाँ क्या, बस, यहाँ से जाना चाहता है।
अमर :
क्यों?
पिंकी :
क्यों क्या, हरामखोर है, और क्यों?
अमर :
लेट मी सी। (पुकारता है) अमित, अमित।
(नौकर दाखिल होता है)
अमर :
क्यों, कहाँ जाना चाहते हो?
(अमित सर झुकाए चुप खड़ा रहता है)
अमर :
लोटन कबूतर जाओ, चाय बनाकर लाओ।
(अमित उल्टे पाँव लौट जाता है और अमर संतुष्ट होकर हँसता है)
पिंकी :
तुम्हारे सामने सर झुकाकर चला गया है, मुझसे रोज बहस लड़ाता है।
अमर :
शादी के बाद से यह बदलाव आया है।
पिंकी :
वह भी तो जरूरी थी। हरामजादा बकरे की तरह गंधाता था।
अमर :
हुँह।
पिंकी :
क्या नहीं किया इसके लिए। एकदम जानवर के बच्चे की तरह था जब आया था।
अमर :
आदमी को जो आदमी के लिए करना चाहिए, वह किया। घरेलू नौकर की हैसियत से आया था।
फिर भी अक्षर-ज्ञान कराया, अच्छा-सा नाम रखा। अब तो पुराना नाम याद भी नहीं।
शायद राम या हरी हो। आठवें तक पढ़ाया। दफ्तर में डेलीवेज में लगाया, फिर
कह-सुनकर रेगुलर चपरासी बनवाया, फिर भी।
पिंकी :
यही तो, यही तो। और लोगों के यहाँ दस-दस साल से डेलीवेजर काम कर रहे हैं। सब
जानते हैं कि जहाँ रेगुलर करवाया वहीं पंछी उड़ा। बहुत बड़ी गलती की हम लोगों
ने।
अमर :
पर हम इस तरह का शोषण भी तो नहीं कर सकते हैं।
पिंकी :
(असहाय परितृप्ति)
हाँ। (थोड़ा रुक कर) क्या होगा अगर वह बाहर चला गया।
अमर :
होगा क्या (गंभीर हास्यात्मकता)। मनुष्य जाति के समक्ष केवल वही
समस्याएँ आती हैं जिनका वह समाधान कर सकता है।
पिंकी :
आपको क्या, आप तो दफ्तर चल देंगे। मरन तो मेरी है। पाँच कमरों का पोंछा
लगाते-लगाते पनस्तर ढीला हो जाएगा।
अमर :
पोंछा लगाने की क्या जरूरत है, झाड़ू करना काफी है।
पिंकी :
मैं इस तरह से नहीं रह सकती। रह आप भी नहीं पाएँगे, बात चाहे जो करें।
अमर :
रिटायरमेंट के बाद क्या करोगी?
पिंकी :
वह रिटायरमेंट के बाद सोचूँगी। क्या जरूरत थी इतना बड़ा मकान बनवाने की। क्या
तीन कमरे काफी नहीं थे।
अमर :
तीन-पाँच।
पिंकी :
क्या?
अमर :
कुछ नहीं।
पिंकी :
आप मेरी बातों को इतना हल्का क्यों कर देते हैं?
अमर :
(जलधार-सी नीतिसम्मत हँसी)
तुम बातों को इतना भारी क्यों कर देती हो? अच्छा बताओ और क्या कहता है?
पिंकी :
कहता है कि बीवी ने अलग रहने को कहा है। अरे गैराज दे दिया है, उसी में रहो।
आदमी-औरत की तरह।
अमर :
गैराज में तकलीफ क्या है?
पिंकी :
आजादी नहीं है। हुँह।
अमर :
अब तो कोई ज्यादा काम भी नहीं है।
पिंकी :
कुछ नहीं सबेरे आपके साथ आफिस चला जाता है, शाम को लौटता है। उसकी औरत आई तो
सोचा कुछ काम में हाथ बटाएगी, लेकिन साफ मना कर दिया। बोलती है, अहसान जिसके
ऊपर होगा वह जाने। मैं किसी की नौकरानी नहीं हूँ।
अमर :
बड़ी तेज है।
पिंकी :
बहुत। कह गई है जब अमित अलग मकान लेगा तभी लौटेगी। बता तो चुकी हूँ कई बार।
अमर :
हाँ। (अविराम, ऊब जैसा एक क्षण का विराम) चलो कथक
समारोह में चलते हैं।
पिंकी :
क-थ-क सामारोह में।
अमर :
हाँ। सवेरे बताया तो था।
(अँधेरा होता है। नेपथ्य से तत्कार और घुँघरुओं का क्रीसेन्डो सुनाई पड़ता
है जो एक घुँघरू की आवाज तक पहुँचता है। तालियाँ बजती हैं। पति-पत्नी घर
में प्रवेश करते हैं।)
दृश्य तीन
अमर :
पिंकी, तुमने देखा आज मेरा जाना कितना जरूरी था। मुझे उस रिपोर्टर की तलाश थी
जिसने कल के प्रोग्राम के बारे में लिखा था कि वह वृद्ध नर्तकियों की शाम थी।
उसका भी क्या दोष! कल्चर भी इनके लिए एक बीट है जैसे क्राइम या मुख्यमंत्री
निवास। अच्छी क्लास ली मैंने उसकी। अरे नृत्यांगनाओं का आकलन आयु से करोगे या
कला से।
पिंकी :
फिर भी सुंदर जवान होती हैं तो ज्यादा अच्छी लगती हैं। माने कला और निखर जाती
है।
अमर :
रियली! खैर, अब तुमसे क्या बहस। हाँ, कुछ चीजें देख-पढ़ लेने को कहा था, क्या
हुआ।
पिंकी :
देख-पढ़ लिया।
अमर :
इतनी जल्दी।
पिंकी :
और क्या।
अमर :
गुड। मेरी समझ में नहीं आता कि लोग अपनी बीवियों से अपने शौक क्यों नहीं शेयर
करते।
(पत्नी कृपापूर्वक मुस्कराती है,
जबकि उसे कृतज्ञतापूर्वक मुस्कराना चाहिए। पति को मुस्कान चुभती है।)
अमर :
अच्छा, अब जाकर सो जाओ।
पिंकी :
और तुम।
अमर :
मैं कुछ पढ़ूँगा। शायद लिखूँ भी।
पिंकी :
क्या देर तक?
अमर :
क्या पता? तुम आराम से सो जाओ। डिस्टर्ब नहीं करूँगा।
पिंकी :
जानती हूँ।
(पति क्षणांश बाद चौंककर देखता है। पत्नी की जाती हुई पीठ दिखती है। हताश
जैसा वह किताबों को उलटता-पलटता है। अँधेरा होता है। वह सोफे पर उठंग जाता
है। पत्नी अँधेरे की छाया की तरह वापस लौटती है। कुछ पलों का मौन।
उपस्थिति की प्रतिक्रिया स्वरूप अमर द्वारा सिगरेट खोजकर जलाना और रोशनी
का हल्के से बढ़ना।)
अमर :
क्या सोओगी नहीं।
पिंकी :
न। (कुछ देर रुककर) अब क्या कहोगे।
अमर :
अब क्या कहूँगा।
पिंकी :
हाँ।
अमर :
क्या कहूँगा।
पिंकी :
क्या जाओगी नहीं।
अमर :
अरे नहीं भई, तुम तो कमाल करती हो। (उठकर गाय की तरह पत्नी को थपथपाता है।)
पिंकी :
आज मजा नहीं आया।
अमर :
मजा।
पिंकी :
नाच में।
अमर :
ओह!
पिंकी :
एक बात अचानक ध्यान में आई है। ध्यान है।
अमर :
क्या।
पिंकी :
जब पहली बार तुमने मुझे कथक डांस दिखाया था तब भी वही चेतना घोषाल नाची थी।
लड़की-सी थी तब।
अमर :
अरे...अरे...हाँ। (खुश होता है) भई मजा आ गया, इतनी पुरानी बात का इस
तरह याद आना। बाईस बरस हो गए हैं। वाह! गोंडा में कथक।
पिंकी :
गोंडा में कथक।
अमर :
अब तुम्हें याद नहीं। तब हम लोग गोंडा में थे। छोटा सा शहर। अभी भी शायद उतना
ही छोटा होगा या बहुत बड़ा न हुआ होगा।
पिंकी :
(उत्साहपूर्वक)
गोंडा गोंडा ही रहेगा, बड़ा या छोटा।
अमर :
तुम तो ऐेसे कह रही हो जैसे अभी इसी क्षण देखकर आई हो।
पिंकी :
मैं महसूस ऐसा ही करती हूँ।
अमर :
आं हाँ, ऐसा मत कहो। लेट गोंडा प्रोगेस। समय के साथ। तुम वहाँ इस तरह से जा ही
नहीं सकतीं।
पिंकी :
एवमस्तु। तब हम कुछ भी ना याद करें। याद करेंगे तो गोंडा की प्रोग्रेस रुक
जाएगी। समय के साथ।
अमर :
ओ नो। अब तुम भी अद्भुत बातें करने लगीं।
पिंकी :
हम लोग चेतना घोषाल की बात कर रहे थे।
अमर :
ओह, यस। मैंने अच्छा-खासा आंदोलन खड़ा कर दिया था। क्लासिकल डांस देखो भाई,
क्लासिकल डांस। जयपुर घराने की नवोदित नृत्यांगना चेतना घोषाल। मेरे जानने
वाले यकायक सुसंस्कृत हो गए थे। उनके पास और कोई विकल्प भी न था। सब डिग्री
कॉलेज में पढ़ाते थे। हम लोगों की बगल में कौन रहता था?
पिंकी :
नाम याद नहीं। मिलिट्री साइंस के कोई प्रोफेसर थे।
अमर :
प्रोफेसर। गोंडावासियों के लिए सभी मास्टर थे, चाहे वह प्राइमरी के हों या
डिग्री कॉलेज के। बेचारे! बड़ी सतर्कता से अपनी प्रोफेसरी की रक्षा करते थे।
अधिकांश धर्मयुग और साप्ताहिक हिंदुस्तान पढ़ते थे। कुछ सरिता और दिनमान भी।
मैंने उन्हें वामपंथी रुझान वाली लघु पत्रिकाएँ दीं। कितने भरे-भरे दिन थे वे।
उस समय वामपंथ प्रेम करने जैसा था। रूमाना-दीवाना वामपंथ और चेतना घोषाल। मोटी
बिल्कुल नहीं हुई है।
पिंकी :
गला देखा है। कोई कुछ भी करे, गले की लकीरें नहीं जाती हैं।
अमर :
उस हिसाब से देखो तो बाल-बच्चों वाली हो गई होगी। इसका कोई क्या करे।
पिंकी :
हूँ। (चेहरे पर बादल-सा जिसे अमर तुरंत महसूस करता है।)
अमर :
लाओ पुराने अलबम देखे जाएँ।
पिंकी :
रात में वही काम करने को बचा है।
अमर :
ऊहूँ। अब लाओ भी।
(पिंकी जाकर तीन अलबम लाती है)
पिंकी :
पहले देखिए अलबम नंबर 'क' यानी दांपत्य अलबम।
अमर :
दांपत्य अलबम। आ... हा। लेकिन यह पहली फोटो ही नियम विरुद्ध है।
पिंकी :
क्यों, क्यों?
अमर :
अरे गौर से दखो। वह शादी से पहले की फोटो है, वह भी कपल फोटोग्राफ।
पिंकी :
तो इसमें नियम-विरुद्ध क्या है? सब जानते हैं कि हमने पहले प्रेम किया, तब
विवाह।
अमर :
पता है, पता है। लेकिन यह फोटो इस अलबम में क्या कर रही है?
पिंकी :
तब कहाँ जाएगी?
अमर :
एक और अलबम। प्रेम का अलबम।
पिंकी :
एक तस्वीर के लिए एक अलबम। न, इसी में रहेगी, दांपत्य अलबम में।
अमर :
एवमस्तु।
पिंकी :
यह देखो अमर-पिंकी युगल का विवाहोपरांत पहला फोटो।
अमर :
इसे क्या देखना। यह तो एनलार्ज्ड होकर बेडरूम में टंगी है। पलटो।
पिंकी :
तो यह देखो दूसरी फोटो।
अमर :
लवली। तुम्हारे मादक मुटापे की पहली शुरुआत।
पिंकी :
अब आगे नहीं दिखाऊँगी।
अमर :
(हाथ बढ़ाकर हाथ छूते हुए)
सच कहता हूँ। शादी के बाद चर्बी की जो पहली तह लड़की/औरत पर चढ़ती है, उसका
आकर्षण अनन्य है।
पिंकी :
उसके बाद।
अमर :
पन्ना पलटो।
पिंकी :
यह देखो, गोंडा।
अमर :
तस्वीर में गोंडा कहाँ से आ गया?
पिंकी :
मेरा मतलब, यह तस्वीर गोंडा में खिंची थी। देखो हम लोगों का पहला सोफा उसी पर
तो बैठे हैं।
अमर :
उस समय सस्ती लकड़ी और नायलान के तारों के यह सोफे खूब चलते थे। यह गया कहाँ?
(चौंककर जिस सोफे पर बैठा है उसे देखता है। पिंकी भी संक्रमित होकर वही
हरकत करती है परंतु तुरंत सँभलती है।)
पिंकी :
आपने तो चौंका दिया। इसमें क्या देख रहे थे? इसमें वह कहीं गायब थोड़े ही हो
गया होगा।
अमर :
बिल्कुल, बिल्कुल। लेकिन याद क्यों नहीं आ रहा है।
पिंकी :
मुझे भी याद नहीं आ रहा है। इतना कैसे करूँ? नई किताब के अंदर पुरानी किताब
गायब हो जाती है, नई अलमारी के अंदर पुरानी अलमारी, नए मकान के अंदर पुराना
मकान।
अमर :
हर चीज अपने ही संस्करण के अंदर गायब हो रही है। वह फ्रिज और टी.वी. आने वाले
फ्रिज और टी.वी. में गायब हो जाएगा।
पिंकी :
देखो तुम किसी गोष्ठी में नहीं बैठे हो और न मैं तुम्हारी प्रजा क, ख, ग हूँ।
'क' का फोन आया था।
अमर :
यह तो मैं तुमसे कह रहा हूँ। अच्छा वाक्य कविता लिखने के काम आता है, कहकर
बर्बाद करने के लिए नहीं। 'क' ने क्या कहा?
पिंकी :
कह रहा था कल छुट्टी है, घर पर आएगा।
अमर :
अच्छा।
पिंकी :
पलटूँ।
अमर :
रुको। मेरा रेडियो तो देख लो।
पिंकी :
इसे तो बहुत देखा है। तुम्हें और तुम्हारा ढढ्ढा जैसा रेडियो। क्यो?
अमर :
सन चालिस का है। देख रही हो कितना विशाल तन।
पिंकी :
देखती ही रहती हूँ। इसे तो तुमने सँभाल कर छोड़ा है। क्या कहते हैं, फैमिली
ए'अर्लूम।
अमर :
यस। मेरे घर और बचपन की निशानी। इसे देखकर लोगों को पता चलता था कि अच्छे घर
का लड़का छोटी नौकरी कर रहा है।
पिंकी :
सन चालीस बड़ा जबर्दस्त साल रहा होगा।
अमर :
और क्या। इसी समय पापा की शादी हुई थी। इसी पर वह बी.बी.सी. सुनते थे, सेकेंड
वर्ल्ड-वार की खबरें। यह फोटो किस सन् की है? हम लोग कब थे गोंडा में? (खुद ही) पचहत्तर से सतहत्तर तक। (उत्तेजित होकर)
इमरजेंसी वहीं लगी थी गोंडा में। (हल्की हँसी उत्तेजना को धो-पोंछ कर साफ करने वाली) कैसी-कैसी चीजें
याद आती और भूलती हैं। उस समय मैं बी.बी.सी. खूब सुनता था। पढ़ने को कुछ नहीं
बचा था। सारी पत्रिकाएँ, सारे अखबार बेकार हो गए थे। आगे पलटो।
पिंकी :
यह हम लोग अयोध्या में हैं।
अमर :
कनक-भवन। श्रीराम-सीता युगल सरकार की ड्योढ़ी। तुम्हारे बाल हवा में बहुत
बेतरतीब हो गए हैं। आगे।
पिंकी :
इसे देखो, जन्मभूमि। यह सब भी एक समय था। जन्म की कामना से जन्मभूमि गई।
कौशल्या का राम देखने को तुम मना करते रहे तो भी जबर्दस्ती तुम्हें ले गई।
मेरी आस्था, निरर्थक।
अमर :
शायद मुझे अपनी आस्था पर विश्वास नहीं था, नहीं तो जाते ही क्यों। मस्जिद के
अंदर सिपाही के पहरे में राम और बाहर उनकी दुनिया। ऐनी वे छोड़ो, न रहा बाँस न
बजती है बाँसुरी। ओह मैं क्या कह गया, विवादास्पद वाक्य। बंद करो, चलो। मैं
सोने की कोशिश करूँ।
दृश्य चार
(दूसरा दिन,
छुट्टी की फिजाँ। दरवाजे पर घंटी बजती है। अमर उठकर दरवाजा खोलने का
उपक्रम करता है। '
क'
का आगमन।)
क :
(कुछ दोस्ताना कुछ मातहताना)
गुड मार्निंग सर!
अमर :
मार्निंग मार्निंग।
क :
सोचा सबेरे-सबेरे आपके दर्शन करूँ।
अमर :
सबेरे का जिक्र कुछ ज्यादा ही हो गया। ब्रेकफास्ट लोगे।
क :
मजदूर आदमी, घर से खाना खाकर निकलता हूँ।
अमर :
कैसे आना हुआ?
क :
सुनिए 'दैनिक प्रभात' के संपादक से आपकी कैसी ट्यूनिंग है?
अमर :
ठीक-ठाक समझो। क्यों?
क :
एक स्ट्रिंगर जॉब है, कल्चर बीट। जो लड़का पहले करता था, वह 'लक्ष्मी टाइम्स'
में सब-एडीटर हो गया है। समझ लीजिए, दो हजार रुपये महीने का रेगुलर डौल हो
जाएगा। कल्चर में करना ही क्या है?
अमर :
करने को तो बहुत कुछ है, अगर कोई करना चाहे।
क :
अजी छोड़िए मैंने खूब देखा है। जाते ही ब्रोशर लो, कलाकार से बतियाओ, आधा चौथाई
कार्यक्रम देखो और रिपोर्ट ठोंक दो। आज का 'लक्ष्मी टाइम्स' आपने देखा, चेतना
घोषाल का इंटरव्यू छपा है।
अमर :
पचासों अखबार और सैंकड़ों इंटरव्यू... कहाँ तक देखूँ? क्या छपा है?
क :
चेतना घोषाल ने कहा है कि कथक की मंदिर शैली का विकास होना चाहिए, मुगलों की
दरबारी शैली से इसे मुक्त करना चाहिए।
अमर :
गोया कि चेतना घोषाल भी मुँह में जुबान रखती हैं। गनीमत है कि मुगलों कहा,
मुसलमानों नहीं।
क :
जी हाँ, जी हाँ।
(दरवाजे से पिंकी का झाँकता हुआ चेहरा)
क :
ओ हो, भाभी जी नमस्कार। चेतना घोषाल का नाम सुनते ही आप दिखाई पड़ गईं। (पिंकी का उन्मुक्त हँसी के साथ प्रवेश)
अमर :
(गंभीरतापूर्वक
,
पिंकी की हँसी और उपस्थिति को अप्रासंगिक बताते हुए)
और उसमें भी गलती। कथक की दरबारी शैली अवध के नवाबों की देन है, न कि मुगलों
की।
क :
जी हाँ, जी हाँ।
अमर :
यह हर जगह बहुत बड़ी गड़बड़ी हो रही है। दरबार शैली और मंदिर शैली, सरोद प्राचीन
भारतीय वाद्य है या मध्यकालीन इसे ठीक करना ही होगा।
क :
बिल्कुल, बिल्कुल। सुनिए, यह दैनिक प्रभात वाली बात भी दिमाग में रखिएगा।
परेशानी में हूँ।
(पिंकी अपने को अनावश्यक समझकर चल देती है।)
अमर :
तुम हमेशा परेशानी में रहते हो।
क :
देखिए, कोई नौकरी में तो हूँ नहीं। यह तो जो इधर-उधर का लेखन-कार्य मिल जाता
है तो काम चल जाता है।
अमर :
सॉरी यार। मैं बात कर लूँगा। वैसे नौकरी ऐसा फल है कि खाने वाला भी पछताता है
और न खाने वाला भी। (थोड़ा रुककर धीरे-से) यूँ यह बात खा के पछताने
वाला ज्यादा आसानी से कह सकता है।
क :
मैं चलूँ।
अमर :
और वह काम.... कैसा चल रहा है?
(क जाते जाते रुकता है)
अमर :
अच्छा जाओ, कल दफ्तर में बात होगी। सुनो, ख और ग से भी कह देना, कल दफ्तर आ
जाएँगे।
(क जाता है)
अमर :
(स्वगत)
अरे बात तो अधूरी रह गई। चेतना घोषाल की बात तो सिरे से ही गलत है भाई। कथक का
तो मुगलों से कुछ लेना-देना ही नहीं है, इसमें तो अवध के नवाबों का रोल है।
मुझे तो डर है कि 'क' यह सारी बातचीत कहीं भी अपने ढंग से लिख देगा और
ऐतिहासिक भूल करेगा। आई हैव टू चेक दिस। पिंकी...।
(पत्नी का आना,
पीछे-पीछे नौकर)
पिंकी :
देखिए यह बहुत मक्कार हो गया है। पंद्रह दिन से कह रही हूँ कि लकड़ी वाली
अलमारी झाड़-पोंछ दो। अभी तक हाथ नहीं लगाया।
अमित :
अब इस अलमारी में है ही क्या, तरह-तरह के पुराने जूते-चप्पल और रद्दी। कभी भी
साफ कर दूँगा।
अमर :
(खड़ा होकर)
आज साफ हो जानी चाहिए।
(अमित झटका-सा खाकर अंदर चला जाता है।)
अमर :
और?
पिंकी :
कुछ नहीं, लेकिन इसमें इतना नाराज होने की क्या बात है।
अमर :
कुछ नहीं।
पिंकी :
चलो अलबम देखा जाए।
अमर :
फिर?
पिंकी :
नहीं, दूसरा वाला। वैसे उसके भी कुछ फोटो बाकी रह गए थे। सुनो...!
(जाती है। वापस लौटी तो हाथ में दो अलबम हैं। बैठती है,
अलबम खोलती है।)
अमर :
आजीविका अलबम। पेज नंबर एक, डिग्री वाली फोटो।
अमर :
(मजा लेकर हँसते हुए)
उस समय का रिवाज था। डिग्री वाली फोटो खिंचाने के बाद एक टाई वाली फोटो खिंचाई
जाती थी।
पिंकी :
विदाई वाला फोटो। तुम सबसे पीछे तीसरी लाइन में हो।
अमर :
जिले के सबसे बड़े अफसर का ट्रांसफर हुआ था। उस समय ट्रांसफर के वक्त ग्रुप
फोटो खिंचाई जाती थी। अगली ग्रुप फोटो देखो। इसमें मैं दूसरी लाइन में खड़ा
हूँ। नौकरी की शुरुआत में ऐसा होता है।
पिंकी :
यह फोटो देखो, इसमें तो तुम कुर्सी पर बैठे हो।
अमर :
यह भले लोग थे, डिग्री कॉलेज में प्राध्यापकगण। एस.के. त्रिपाठी, प्रवक्ता
हिंदी की विदाई पार्टी।
पिंकी :
इसके बाद की फोटुओं में तुम हमेशा कुर्सी पर रहे। अब तो इस तरह के विदाई
फोटुओं का चलन ही नहीं रहा।
अमर :
यह क्या है, यह फिर गोंडा की फोटो है। घर के अंदर की। यह देखो अलमारी। (अंदर की ओर चिल्लाता है) अबे अलमारी साफ कर रहा है या नहीं।
(अंदर से अमित की आवाज '
जी हाँ बस जा ही रहा हूँ'
।)
पिंकी :
यह अलमारी तुम्हारी बढ़ती हुई किताबों के लिए आई थी। एक सप्लायर ने गिफ्ट दी
थी।
अमर :
उसने कहा था कि वह मेरी किताबों की दुर्दशा नहीं देख सकता है। कितनी अच्छी लगी
थी उसकी बात। कितना शातिर था वह। मुझे मेरी किताबों से हराया।
पिंकी :
हिश, इसमें हार क्या जीत क्या। कोई मुफ्त में नहीं देता है। लेकिन सोचा कि
इसकी शुरुआत किताबों से हो, हाऊ फनी एंड ट्रैजिक बोथ। धीरे-धीरे बहाने पैदा
होते गए और आदत बनते गए।
पिंकी :
(अलबम पलटते हुए)
देखो, हमारा घर कितना खुबसूरत लग रहा है।
अमर :
ओनर्स प्राइड कलीग्स् जेलसी। सालों ने इस घर की बड़ी शिकायत की। क्या उखाड़ पाए? (मर्दाना ढंग से दंभोक्ति अदा करता है)
(इतने में अंदर से अमित की आवाज आती है '
अरे यह तो घुना गई'
। अमर और पिंकी जल्दी से अंदर आते हैं। कुछ अस्पष्ट ध्वनियाँ आती हैं।
गुस्से में भरे हुए अमर का बाहर आना। पीछे-पीछे पिंकी और अमित)
अमर :
(अमित से)
कैसे दीमक लग गई, आँय बोल।
(अमित का चुप रहना। अमर अलबम की अलमारी वाली फोटो देखता है।)
अमर :
झूठा मक्कार, मुझसे कहता था कि इस लकड़ी में कभी दीमक नहीं लग सकती। सप्लायर का
बच्चा, क्या नाम था उसका, आँय। (किसी से कोई जवाब नहीं पाता है , खुद से भी नहीं।) जाओ जो अंगड़-खंगड़ भरा है उसे निकालकर
अलमारी धूप में रख दो। मुझसे उसकी शक्ल नहीं देखी जाती।
पिंकी :
अच्छा है कि किताबों के लिए स्टील के बुककेसेज ले लिए। कितने अच्छे लगते हैं। (जरा सा रुककर) कितनी तो किताबें हो गई हैं इस घर में। पढ़ने से पहले
ही डर लगता है।
अमर :
(एकदम किताबी आवाज में)
बुक्स आर माई लाइफ। (थोड़ा-सा रुककर सहज होते हुए) दो-तीन दिन से एक
किताब ढूँढ़ना चाहता हूँ लेकिन चाभी ही नहीं मिल रही है।
पिंकी :
रेडियो के बगल में तो रखी है। चलो, उठो, देती हूँ।
(दोनों उठकर अंदर जाते हैं)
दृश्य पाँच
(कार्यालय का दृश्य। कुर्सियों पर बेतरतीब ढंग से कहीं '
क', '
ख,' '
ग'
नामक तीन युवक बैठे हैं। '
ख'
टेलीफोन के साथ कोशिश करता हुआ दिखाई पड़ता है।)
क :
छोड़ो बहुत उँगली कर चुके। चूतिया नहीं हैं अमर कौशिक। एस.टी.डी. लॉक होगा।
ख :
मैं भी जानता हूँ। लोकल मिला रहा हूँ भाईजान।
ग :
अमें गए कहाँ हैं? देखो क्या नाम है उनके चपरासी का, अमित। उसी से पूछते हैं। (नाटकीय अंदाज में) अमित जी। (अमित का आगमन)
अमित :
(गंभीरतापूर्वक)
जी।
ग :
(कुर्सी की ओर इशारा करता हुआ
) अमें, गए कहाँ साहिबे-आलम।
अमित :
डायरेक्टर साहब के यहाँ। (कहकर बाहर चला जाता है।)
क :
अब तो हो गई छुट्टी। वहाँ तो अच्छी-खासी क्लास चल रही होगी।
ख :
नहीं, अभी भगाएगा। सुना है परसों उसने कसकर डाँटा है।
(क और ख दोनों उत्सुक हो जाते हैं)
ख :
(चिंतित स्वर में)
अमर जी को चाहिए कि अब किसी साइक्रियाटिस्ट को दिखा लें। यह कोई शर्म की बात
भी नहीं है, विदेशों में तो मनोचिकित्सक से कन्सलटेशन एक रूटीन बात हो गई है।
क :
अरे वह डाँट वाली बात बताओ।
ख :
डाँट वाली बात यह है कि किसी फाइल को डिस्कस करने बुलाया था डायरेक्टर ने। वह
पूछे जमीन की और यह बतावें आसमान की। फिर इन्होंने उसे समझाना शुरू किया। इस
पर वह हत्थे से उखड़ गया। गनीमत है कि कुछ लिख-विख कर नहीं दिया, खाली डाँटकर
रह गया।
ग :
भला आदमी है।
क :
मगर कुछ गड़बड़ तो मुझे भी सुनाई दिया है। रात-बिरात किसी दोस्त के यहाँ पहुँच
जाते हैं तो उठने का नाम नहीं लेते हैं। लोग बताते है कि घंटों टेलीफोन पर बात
करते हैं कि छुड़ाना मुश्किल हो जाता है।
ग :
लगता है स्कीजोफ्रीनिया हो गया है।
क :
तुम्हें स्कीजोफ्रीनिया के मायने पता है?
ग :
(बेशर्मी से)
क्यों, मायने पता होना जरूरी है।
क :
नहीं !
ग :
(उद्धत होकर)
नहीं।
ख :
अमें यार, पागल वह हो रहे हैं, लड़ तुम लोग रहे हो। कमरे का असर आ गया है।
(तीनों हँसते हैं,
जैसे सौहार्द स्थापित हो गया है। अमर का कमरे में प्रवेश। सब खड़े होते
हैं। वह सबसे हाथ मिलाता है और कुर्सी पर बैठता है।)
अमर :
कितनी देर हुई?
क :
मुझे आए तो पंद्रह मिनट हुए।
ख :
दो-चार मिनट का हेर-फेर इधर भी समझिए।
ग :
मैंने सांप्रदायिकता का तिरस्कार करने वाले पद्य काफी मात्रा में इकट्ठा कर
लिए हैं।
अमर :
देखें। लाए हो।
(क एक फोल्डर बढ़ाता है। अमर उसे उलट-पुलट कर थोड़ी देर देखता है।)
अमर :
गुड, लेकिन हिंदी कविताएँ कुछ कम हैं।
क :
हिंदी में कुछ मिल ही नहीं रहा है। इस तरह के शेर उर्दू में ही ज्यादा हैं।
अमर :
दिलचस्प बात है।
क :
क्या?
अमर :
छोड़ो। चाय पिया जाए।
(अमित का आगमन)
अमर :
चाय।
(अमित का प्रस्थान)
ख :
मेरा काम करीब-करीब कंप्लीट है। लाया नहीं हूँ, नहीं तो दिखला देता।
अमर :
तुम्हारा काम आसान भी तो है।
(अमित का एक ट्रे
में केतली और कप-प्लेट के साथ प्रवेश)
अमर :
(रेशमी धार के साथ)
लुसुन बहादुर, तुमसे कितनी बार कहा है कि केतली टीकोजी से ढकी होनी चाहिए।
अच्छा जाओ सिगरेट ले आओ।
(क,
ख,
ग में से एक चाय बनाने के लिए हिलता है।)
अमर :
रहने दो, चायपान एक कला है।
(खुद ही बड़ी बनावट के साथ चाय बनाता है। लोग चाय पीना शुरू करते हैं।)
ख :
भाई साहब, मेरा काम इतना आसान नहीं है जितना आप समझ रहे हैं।
अमर :
(हल्का-सा चौंककर)
आयँ।
ख :
जी। हर ऐरा-गैरा नत्थू खैरा तो आजकल लेख लिखता है। जिनका काम लेख लिखना है वह
तो लिखते ही हैं, लगभग हर कवि और कहानीकार भी लेख लिखता है, फिर सांप्रदायिकता
पर लिखना तो इस समय का प्रियतम लेखन है। बड़ी मुश्किल से दस क्वालिटी आर्टिकल
मैंने छांटे हैं। कल दिखा दूँगा।
अमर :
ठीक है। वैसे अभी तो पाँच लेख छापने का तय किया है मैंने। एक लेख सदाकांत
त्रिपाठी का है, शायद 'भूमिका' के दसवें या ग्यारहवें अंक में निकला था। अच्छा
लिखा है लेकिन ढंग से नोटिस नहीं ली गई। उसे भी ढूँढ़ कर निकलवाना।
ख :
नया नहीं लिखवाएँगे।
अमर :
लिखवा रहा हूँ। कुछ लोगों से कहा है। नया-पुराना मिलाकर तय करूँगा।
क :
पेमेंट तो बढ़िया होगा।
अमर :
(अधिकारपूर्ण निरावरण मुस्कान)
और मुझसे क्या उम्मीद करते हो। एक-एक पंक्ति को, एक-एक शेर को...
क :
मोतियों से मत तुलवाइएगा।
(अमर एक अच्छे मजाक की तरह हँसता है। हँसी को खचाक से काटता है और गंभीर
सधी आवाज में पूछता है)
अमर :
एंड यू धर्मशास्त्री?
ग :
मैंने सारे सुभाषित इकट्ठा कर लिए हैं। कुरआन से, गीता से, बायबिल से,
गुरुग्रंथ साहब से। और, और....
अमर :
ठीक है, ठीक है। अब कुछ पैगंबर टाइप लोगों के कथन भी ढूँढ़ लो, थीम से रिलेटेड।
ग :
वह भी कर रहा हूँ, बिना उनके काम बनने वाला नहीं है। धर्मग्रंथों में बड़ी गड़बड़
है, जिसमें लिखा है भाईचारे से रहो, उसी में लिखा है काफिरों को मारो।
अमर :
ओ हो तो हमें उससे क्या? हम तो अपने मतलब का छाँटेंगे।
ग :
मैं कहता हूँ धर्मग्रंथों को घुसेड़ा ही क्यों जाए। अमर मान लीजिए कि उसमें
लिखा है कि पड़ोसियों को प्यार करो तो क्या हम केवल इसी कारण पड़ोसियों को प्यार
करेंगे कि किसी पुरानी किताब में ऐसा ही लिखा है। या अगर लिखा है कि पड़ोसियों
को मारो तो इसी वजह से मारने लगेंगे। सांप्रदायिक सद्भाव के बारे में हम
धर्मनिरपेक्ष सोच क्यों न रखें। क्यों कहे कि गीता या कुरआन यह कहते हैं और यह
नहीं कहते हैं। अरे कहा करें।
(अमर गंभीरता से सुनने की मुद्रा धारण करता है और ख की ओर देखता है।)
ख :
यह धर्मप्राण देश है (कहकर सायास झेंप जाता है) आई मीन, मुझे अन्यथा
न लिया जाए। चीजों की ग्रहणशीलता बढ़ती है अगर उन्हें पुरानी किसी भी चीज से
जोड़ा जाए। सांप्रदायिकता का विरोध करने के लिए यह किया जा सकता है, हर्जा क्या
है?
ग :
तो वह आपकी धर्मनिरपेक्षता कहाँ गई, अगर धार्मिक किताबों का ही सहारा लेना है।
क :
यह थोथी दलील है, बौद्धिक विलास। धर्मांधता के विरुद्ध धर्म के द्वारा ही लड़ा
जा सकता है।
अमर :
अद्भुत! और सुंदर भी।
(यह तय नहीं है कि अमर का कथन व्यंग्यात्मक है या विवाद अंत करने का
संकेत। बहरहाल क कुछ कहने का सोचकर भी चुप हो जाता है।)
अमर :
तो हम लोग लगभग तैयार हैं। हूँ?
(जम्हाई लेता है,
जम्हाई से संवाद प्रेषित होता है।)
ख :
क्यों सर, आजकल ढंग से सो नहीं रहे हैं?
अमर :
बल्कि ज्यादा ही सो रहा हूँ।
ख :
ठीक कह रहे हैं। न सोने से, नर्वस ब्रेकडाउन हो जाता है।
(अमर को फिर से जम्हाई आती है जिसे वह बरबस रोकता है और बेचैन हो जाता है।
इतने में इटरकॉम बजता है। वह रिसीवर उठाता है)
अमर :
जी सर, बोल रहा हूँ।... जी सर, आ रहा हूँ (रिसीवर रखता है) डायरेक्टर ने
बुलाया है। तुम लोग रुकना चाहो तो रुको।
(एक डायरी हाथ में लेकर चला जाता है। ग मेज पर तबला बजाने लगता है,
फिर रुककर बोलता है।)
ग :
इन्हें इन्सोमनिया हो गया है।
क :
शायद!
ग :
मेरी यह समझ में नहीं आता है कि तुम जो काम कर रहे हो उसी के खिलाफ कैसे बोल
सकते हो। तुम्हारा काम स्पष्ट है कि धर्मग्रंथों से सांप्रदायिक सद्भाव को
प्रेरणा देने वाली सूक्तियाँ एकत्र करो ओर पाँच हजार का पेमेंट विभाग से
प्राप्त करो। अब इसमें वह बात कहाँ से पैदा हो गई जो तुमने पैदा की है।
(ग चुप हो जाता है,
मन-ही-मन कुछ तलाशता हुआ और बेख्याली में हाथ की थाप मेज पर देता हुआ।)
ख :
अच्छा, यह सब छोड़ो। यह बताओ कि इसमें अमर जी का कितना बनेगा।
क :
सुना है दस हजार प्रतियाँ छपेंगी तो पाँच रुपया प्रति के हिसाब से पचास हजार
से नीचे का खेल तो नहीं होगा।
ख :
तो। और यहाँ तुम पाँच हजार के पीछे सवाल-जवाब कर रहे हो। अरे भाई, सभी लोग ऐसा
बहुत कुछ करते हैं, जैसा वह सोचते नहीं। बल्कि जो जितना सोचता है, उतना ही
अंसगत होता है।
ग :
करेक्ट। लेकिन बौद्धिक स्वतंत्रता का क्या मतलब रहा। यदि हम उसके खिलाफ भी न
बोल सके जो हम खुद कर रहे हैं। प्रोफेशनल काम अपनी जगह, वैचारिकता अपनी जगह।
ख :
अद्भुत! और सुंदर भी। बिल्कुल अमर जी के घर की तरह जिसकी कागज पर कीमत दो लाख
है और जमीन पर दस लाख।
क :
(हँसते हुए)
तुम साले कृतघ्न हो और नीच भी।
ख :
कृतज्ञता कुत्तों की क्वालिटी है, बुद्धिजीवियों की नहीं। कृतज्ञता के पत्थर
के नीचे आत्मा त्राहि-त्राहि कर उठती है। आओ चले, यह आज का विचार है।
(क और ग को दोनों बाँहों से सप्रेम उठाता हुआ बाहर चला जाता है।)
(तत्पश्चात अमर का आगमन। वह कुर्सी के सामने बैठ जाता है।)
मुखौटा :
कैसा चल रहा है सांप्रदायिकता विषेषांक?
अमर :
बहुत अच्छा। पंद्रह दिन में प्रेस में चला जाएगा।
मुखौटा :
और जल्दी कीजिए।
अमर :
कोशिश करूँगा कि दस दिन में हो जाए।
मुखौटा :
यह तो मैंने बता दिया है कि विवादास्पद सामग्री न जाए।
अमर :
मुझे ख्याल है।
मुखौटा :
इस मामले में मुझे आप पर विश्वास करना ही होगा। यह ख्याल रहे कि किसी को चोट न
पहुँचे।
अमर :
कतई नहीं। मुझे अपनी जिम्मेदारियाँ पता हैं सर। मैं जो कुछ भी छापूँगा, वह
भाईचारे का संदेश देगा। किसी हमलावर चीज को आने ही नहीं दूँगा।
मुखौटा :
क्वाइट राइट। होता यह है कि सांप्रदायिकता पर हमला करने वाले लोग इतने कटु और
दुराग्रही हो जाते हैं कि मामला और बिगड़ जाता है। लोकतंत्र का रास्ता
मुलायमियत का है। इनसानियत, कंपोजिट कल्चर यह सारे स्टफ रहने चाहिए एंड सद्भाव
इज द की-वर्ड। राइट!
अमर :
यस सर।
मुखौटा :
अब मैं पूरी तरह आप पर निर्भर रह सकता हूँ।
अमर :
ओब्लाइज्ड सर।
मुखौटा :
कितनी प्रतियाँ छाप रहे हैं। दस हजार?
अमर :
जी।
मुखौटा :
पंद्रह हजार छापिए।
अमर :
थैंक्यू सर!
मुखौटा :
अब आपकी तबीयत कैसी है?
अमर :
जी? (रुककर) तबीयत तो ठीक ही है।
मुखौटा :
अरे नहीं भाई, टेक केयर। इसमें सबसे बड़ी दिक्कत यह होती है कि बीमार अपने को
बीमार नहीं समझता है। किसी अच्छे साइक्रियाटिस्ट को दिखाइए।
अमर :
मैं होम्योपैथी कर रहा हूँ और बिल्कुल ठीक हूँ।
मुखौटा :
आई सी।
अमर :
और कोई आदेश हो तो बताएँ।
मुखौटा :
ठीक है, जाइए।
(अमर उठता है और कुर्सी बदलकर ढेर हो जाता है।)
दृश्य छह
(ड्राइंगरूम। अमर लिखने की मुद्रा में झुका हुआ।)
अमर :
प्रिय पिंकी, प्रिय पिंकी।
पिंकी :
(अंदर आकर)
चिट्ठी लिख रहे हैं क्या?
अमर :
सोचता हूँ शुरू करूँ। चिट्ठी लिखना कितना मुश्किल हो गया है। कविताओं से भी
ज्यादा।
पिंकी :
कविताएँ आसान हो गई हैं।
अमर :
(खुश होकर)
तुम कविता का मजाक मत उड़ाओ।
(पिंकी कुछ स्त्रीवादी कविताएँ रिसाइट करती है। यह अमर की कविताएँ हैं।
उनके तेवर धीरे-धीरे बदलते हैं। वह बेजारी से बीवी की ओर देखता है।)
अमर :
(नाराज होकर)
तुम कविता का मजाक मत उड़ाओ।
पिंकी :
(शोखी के साथ) मैं तो अपकी कविताएँ पढ़ रही हूँ।
(अमर घूरता है। पिंकी चुप हो जाती है।)
पिंकी :
(अचानक कठोर स्वर में)
डॉक्टर ने क्या कहा?
अमर :
किस डॉक्टर ने?
पिंकी :
वही, जिसकी दवा खा रहे हो।
अमर :
खा रहा हूँ। तुम तो ऐसे कह रही हो जैसे किसी बड़े भारी मरीज का बड़ा भारी इलाज
चल रहा है।
पिंकी :
इलाज तो ढंग का ही कराना चाहिए।
अमर :
मुझे हुआ क्या है। डिप्रेशन तो एक इंटेलेक्चुअल फिनामिना है।
पिंकी :
और यह नींद न आना, घंटों बात न करना और घंटों अँधेरे में चुप बैठना, यह क्या
है? और...
अमर :
(चिल्लाकर) और क्या?
पिंकी :
यह होम्योपैथी छोड़ो।
अमर :
क्यों छोड़ूँ। तुम हाम्योपैथी के बारे में जानती क्या हो? तुम्हें क्या पाता
इसमें कितना आंतरिक सौंदर्य है। यह किसी रोग का लिपिकीय इलाज नहीं है, एक टोटल
थेरेपी है। यह हर मानव-देह से अलग-अलग मुलाकात करती है, बिल्कुल अलग, बिल्कुल
विशिष्ट। इसे शरीर के सूक्ष्म तत्व का ज्ञान है।
पिंकी :
हे भगवान।
अमर :
शटअप।
(पिंकी फड़फड़ा कर अंदर चली जाती है। अमित का प्रवेश। उसके हाथ में एक ट्रे
है,
जिसमें पानी का गिलास है। अमर एक घूँट पीता है,
रख देता है। अमित बजाय जाने के खड़ा रहता है।)
अमर :
क्या है?
अमित :
घर से चिट्ठी आई थी।
अमर :
किसकी?
अमत :
वाइफ की।
अमर :
तो?
अमित :
मैं जाना चाहता हूँ।
अमर :
जाओ।
(अंदर से बाहर आकर पिंकी बातचीत में दाखिल होती है।)
पिंकी :
कहाँ जाना है?
अमित :
एक अलग क्वार्टर लेना है।
पिंकी :
किसलिए? क्या नहीं किया हमने तुम्हारे लिए। जरा-से थे जब तुम्हारा चाचा हमारे
पास छोड़ गया था। पाल-पोस कर आदमी बना दिया तो तुम खूँटा तुड़ाकर भाग रहे हो।
अमर :
अब यह सब मत कहो।
पिंकी :
क्यों न कहूँ? यह औरत का गुलाम हो गया है, पता नहीं क्या सुँघा दिया है उसने।
अमर :
अरे, अरे। (कुछ व्यथित-श्रमित होकर) देखो, मैंने क्या किया है - यह
मेरे सोचने और कहने की बात नहीं है। मैंने बहुतों के साथ बहुत कुछ किया है और
करके भूल गया हूँ। पर एक बात जरूर जानना चाहता हूँ कि यहाँ तुम्हें तकलीफ क्या
है?
अमित :
मुझे कुछ तकलीफ नहीं है। आप तो हमारे माँ-बाप हैं, पर वाइफ नहीं मानती।
अमर :
नहीं मानती तो जबरदस्ती तो यहाँ रखा नहीं जा सकता। पर वह तुम्हारे साथ ही रहे
- ऐसा भी क्या जरूरी है। बहुत-से लोग अपनी बीवियों के साथ नहीं रहते जैसे फौज
के सिपाही। बहुत-से लोग अपनी बीवी-बच्चों को घर-देहात में छोड़कर दूर-दूर
मजदूरी, नौकरी करने निकल जाते हैं। तुम्हारा मैं हर हफ्ते घर जाने का इंतजाम
कर दूँगा। कोई-न-कोई सरकारी डाक निकल आएगी, टी.ए. ऊपर से। जाओ और एक दिन रहकर
लौट आओ। सोचो। सोचो। जाओ।
(अमित का नमित नयन,
मौन गमन)
पिंकी :
आपसे कुछ नहीं होगा। इतना अच्छा नौकर हाथ से निकल जाएगा। दुबारा कोई ढंग का
मिलेगा या नहीं।
अमर :
क्या करूँ, कोई किसी को बाँध कर रख सकता है।
पिंकी :
क्यों नहीं रख सकता। एक बार धमका कर कह दो कि नौकरी जाती रहेगी तो अक्ल ठिकाने
आ जाएगी।
अमर :
यह मैं नहीं कह सकता। यूनियन वगैरह को देखते हुए न तो ऐसा करना आसान है और अगर
हो भी तो इतना अमानवीय काम मैं नहीं कर सकता।
पिंकी :
कोई मर्दाना काम करने की बात आते ही तुम किनारे हो जाते हो।
अमर :
यह मर्दाना काम होगा?
पिंकी :
हाँ।
अमर :
तुम्हें पता है कि दफ्तर का हर छोटा-बड़ा आदमी मेरी कितनी इज्जत करता है!
पिंकी :
डरते कितने लोग हैं?
अमर :
क्या?
पिंकी :
हाँ। डेढ़ आदमी भी तुमसे डरते नहीं होंगे। इसे तुम सम्मान कहते हो। भ्रम है
भ्रम, और इस तरह की इनसानियत एक दूसरे तरह की कमजोरी के सिवा, कुछ भी नहीं है।
अमर :
यह तुम कह रही हो जन्मजात बंध्या। वंशहीन होकर मरूँगा फिर भी जिंदगी-भर
तुम्हें गले लगाए रखा। कोई दूसरी बात सोची भी नहीं, करने को कौन कहे। यह
इनसानियत है या कमजोरी?
पिंकी :
क्या करते, बताओ? क्या करते?
अमर :
जब कुछ किया ही नहीं तो क्या बताऊँ?
पिंकी :
वही तो, वही तो। लेकिन नौकर और बीवी की बराबरी तो कर ही दी। ऐसा कोई मर्द नहीं
करता, तुम ही करते हो।
अमर :
निहायत फूहड़ औरत है।
पिंकी :
मैं स्वस्थ हूँ, बीमार नहीं।
अमर :
अरे, अरे, यह किसी तरह की बात कर रही हो। तुम्हें तो नहीं लेकिन मुझे शर्म आ
रही है।
पिंकी :
शर्म का इलाज कराओ। (अंदर चली जाती है।)
अमर :
माई गॉड, औरतें कितनी अनर्गल होती हैं। इस उम्र में भी... कितनी निर्लज्जता
है!
दृश्य सात
(कार्यालय का दृश्य। अमर का आना और मुखौटा को अभिवादन करना।)
मुखौटा :
(खुशदिली से)
बैठिए भाई, बैठिए।
अमर :
थैंक्यू सर।
मुखौटा :
और क्या हालचाल है?
अमर :
कृपा है आपकी।
मुखौटा :
उस सांप्रदायिकता विषेषांक के बारे में बात करनी है।
अमर :
जी।
मुखौटा :
उसे शेल्व करना है।
अमर :
जी?
मुखौटा :
स्थगित करना है, पोस्टपोन।
अमर :
क्यों?
मुखौटा :
हायर आर्डर्स।
अमर :
हायर आर्डर्स, बट व्हाई सर?
मुखौटा :
मैंने पूछा नहीं।
अमर :
आपने पूछा नहीं?
मुखौटा :
हाँ, मैंने नहीं पूछा।
अमर :
बट व्हाई सर, मतलब आपने पूछा क्यों नहीं?
मुखौटा :
पूछने की जरूरत क्या है? मुझे आदेश मिले कि सांप्रदायिकता विषेषांक निकालो तो
मैंने आपसे कहा निकालो। क्या आपने पूछा था कि क्यों निकाला जा रहा है? आप जुट
गए निकालने के लिए, ऐसे ही जुट जाइए अब न निकालने के लिए (खुश्क-सी हँसी) आई मीन पोस्टपोनमेंट के लिए।
अमर :
यह बड़ी गलत बात है, आई मीन दुर्भाग्यपूर्ण।
मुखौटा :
आप सरकार की नौकरी में हैं या नहीं।
अमर :
जी हाँ, हूँ।
मुखौटा :
दैट्स राइट। बहरहाल आपकी बेचैनी दूर रखने के लिए मैं अपना अनुमान, न कि
जानकारी, प्रस्तुत करता हूँ। सत्तारूढ़ दल कुछ नए समझौते करने वाला है। उसका यह
अनुमान है कि यह सांप्रदायिकता वाला झमेला उनके संभावित साथियों को बुरा लग
सकता है और वह इस मामले में कोई खतरा नहीं उठाना चाहते हैं।
अमर :
पर इसमें कोई खतरा है ही नहीं।
मुखौटा :
उन्होंने मुझसे कोई राय नहीं ली। आपसे भी नहीं लेंगे।
अमर :
लेकिन देखिए मुझे स्पष्ट करना चाहिए। आप मुझे दो मिनट दें। बिटविन अवरसेल्वज,
मैं बहुत अच्छे ढंग से आपको आश्वस्त कर सकता हूँ कि खतरे की कोई बात ही नहीं
है। हर लेख, कविता, शेर सब मैंने छांटे हैं, उनमें से कोई ऐसा नहीं है जो किसी
दल या व्यक्ति विशेष पर नागवार टिप्पणी करता हो। दूर तक भी नहीं। मेरी भी लंबी
नौकरी है। मैं बेवकूफ नहीं हूँ।
मुखौटा :
(हल्की-सी खिलखिलाहट)
मैं मानता हूँ।
अमर :
धन्यवाद। देखिए मैंने एक संपूर्ण परिप्रेक्ष्य सामने रखा है। सर्वधर्म समभाव
की धुरी पर धर्मनिरपेक्षता को टिकाया है जिसके फलस्वरूप सारी सामग्री सद्भावना
से ओतप्रोत है। जरा सोचिए कितनी मेहनत की है मैंने।
मुखौटा :
बेशक, लेकिन अब यह बहस बेकार है।
अमर :
मुझे बहुत तकलीफ हो रही है। कितना उत्साह था मेरे अंदर एक अच्छे काम को करने
का। हालाँकि उसमें जो कुछ छप रहा था वह दूसरों का था, लेकिन मुझे अपना ही लग
रहा था। कितना सुंदर और कितना सर्वपक्षीय!
मुखौटा :
तब तो कोई हर्जा नहीं है। सुंदर और सर्वपक्षीय छपे तो क्या और न छपे तो क्या!
अमर :
सर, आप मेरे साथ मजाक कर रहे हैं। आप बुरा न मानें सर, यह मजाक की चीज नहीं
है। हमारा लोकजीवन - राष्ट्रीय जीवन इससे जुड़ा है।
मुखौटा :
आप नौकरी से इस्तीफा दे दीजिए और लोकजीवन - राष्ट्रीय जीवन से जुड़ जाइए।
अमर :
मैं एसा क्यों करूँगा?
मुखौटा :
आप ऐसा क्यों नहीं करेंगे?
अमर :
सर, आप मुझे नौकरी छोड़ने के लिए नहीं कह सकते हैं। यह मेरी निजी स्वतंत्रता
है।
मुखौटा :
(व्यंग्यात्मक आश्चर्य)
अरे!
अमर :
मेरा अपना एक बौद्धिक व्यक्तित्व है।
मुखौटा :
(तेज होकर)
वहीं तक जहाँ तक आपकी बौद्धिक हरकतों को नोटिस लेने लायक न समझा जाए। मुझे पता
है कि आप गेट, डंकल, मिस वर्ल्ड और पता नहीं क्या-क्या के बारे में किस-किस के
साथ बयान देते रहे हैं। पर उनकी भला किसे परवाह होगी जो धरना देने के लिए जाड़े
की सुनहरी धूप चुनते हैं, गर्मी की तपती दुपहरी नहीं। आप देखते ही होंगे इस
सुनहरी धूप में कितने जुलूस निकालते हैं। कवि, कलाकार, अभियंता, ठेकेदार,
अधिकारी, व्यापारी सभी तो इन्कलाब के चिरजीवन की कामना करते हैं। ओह, मैं विषय
से बहक क्यों गया। मेरी शुभकामनाएँ हैं कि आप अठावन वर्ष तक नौकरी करें।
अमर :
थैंक्यू सर।
मुखौटा :
बाई द वे मिस्टर कौशिक, आपके पास अमित नामक कोई चपरासी है।
अमर :
जी, जी हाँ। चपरासी क्या है, मेरे ही घर का पला-पुसा बच्चा है। मैंने ही नौकरी
लगवाई है। क्यों?
मुखौटा :
बस ऐसे ही।
अमर :
बहुत अच्छा लड़का है। आप यकीन नहीं करेंगे, मेरे यहाँ बाजार का पिसा मसाला आज
तक नहीं आता है न ही मिक्सी का उपयोग होता है। आज भी सिल-बट्टा चल रहा है, उसी
की बदौलत।
मुखौटा :
देन, ही इज अ जेम।
अमर :
ही इज।
अमर :
उसने आपके यहाँ से ट्रांसफर की दरख्वास्त दी है।
अमर :
मेरे यहाँ से! आश्चर्य की बात है। पता नहीं किसके बहकावे में आ गया।
मुखौटा :
मेरा भी ख्याल है लेकिन यह लोग होते ही ऐसे हैं, पक्के नमकहराम। मैं उसकी
दरख्वास्त रिजेक्ट कर दूँगा।
अमर :
किसी के बारे में ऐसा सोचने में मुझे तकलीफ होती है। मैं उससे बात कर लूँ तब
आप कुछ करें।
मुखौटा :
आप बहुत संवेदनशील हैं। (मौन। कोई उत्तर नहीं, लेकिन अमर के चेहरे पर इस वाक्य का अनुकूल प्रभाव) आप, आज बहुत दुखी
होंगे। थोड़ा दुख मुझे भी है। हम लोगों को वैकल्पिक तौर पर कुछ सोचना चाहिए।
क्यों न नृत्य नाटक और संगीत पर एक विषेषांक निकाला जाए। पूरी तरह सांस्कृतिक,
एस्थेटिक्स से भरपूर विपदारहित और विवादरहित। पंद्रह हजार प्रतियाँ। क्या
ख्याल है आपका।
अमर :
जैसा आप चाहें।
मुखौटा :
सोचिए। ओ.के.।
(कथन में ही अमर के लिए उठने का संकेत,
अमर उठता है।)
दृश्य आठ
(ड्राइंगरूम का दृश्य। पत्नी भरी हुई बैठी है।)
पिंकी :
गया।
अमर :
कहाँ गया?
पिंकी :
मुझे क्या पता कहाँ गया है? बस उसने गेरेज छोड़ दिया। रिपोर्ट लिखवाओ।
अमर :
किस बात की रिपोर्ट?
पिंकी :
किसी भी बात की रिपोर्ट। चोरी की रिपोर्ट, सीना-जोरी की रिपोर्ट। बड़ी बेइज्जती
महसूस हो रही है।
अमर :
मुझे भी, लेकिन रिपोर्ट लिखाने में झंझट है। फिर झूठी रिपोर्ट। मेरा मन नहीं
होता।
पिंकी :
कुछ तो करो।
अमर :
करूँगा। लेकिन क्या उसका अपने जीवन पर कोई अधिकार नहीं है।
पिंकी :
(हताश होकर)
किससे पूछ रहे हो?
अमर :
किससे पूछूँ?
(अँधेरा और चुप्पी)
(दृश्य आठ को जबरदस्ती,
जल्दी डिस्प्लेस करता हुआ दृश्य नौ।)
दृश्य नौ
(वुडेन स्क्रीन स्टेज पर नहीं है। ड्राइंगरूम और कार्यालय मिल-जुल जाते
हैं। अमर के अलावा सारे पात्र मौजूद हैं।)
मुखौटा :
यह कैसा सीन है?
पिंकी :
यह जीवन है। एक अत्यंत अतिक्रमित स्थान।
मुखौटा :
और यह मृत्यु का दस्तावेज बकलम खुद अमर कौशिक। यह तो बहुत अनफेयर है। मुझे इस
झमेले में क्यों फँसाया जा रहा है? मेरी ओर से तो सब ठीक ही है। उसे अब तक
संस्कृति में विहार करना चाहिए। पंद्रह हजार चमचमाती चिकनी प्रतियों के साथ।
क्या आपको नहीं लगता कि इतने बरसों की नौकरी के बाद ऐसी कोई हरकत कितनी
गैर-जिम्मेदाराना है। क्या शासकीय कर्मचारी की मर्यादा के अनुकूल है।
पिंकी :
मैं तो कहीं मुँह दिखाने के काबिल न रही।
मुखौटा :
सुनिए, सुनिए। मैं इस आत्महत्यात्मक बयान के अस्तित्व को अस्वीकार करता हूँ।
मैंने इसे देखा ही नहीं है। अगर तुमने इसे देख लिया तो तुम्हें उसे बचाना ही
होगा। क्या बचा पाओगे? (स्वर बदल कर) फिर यह भी तो मुमकिन
है कि वह अपना इरादा बदल दे। आखिरकार आत्महत्या इतनी आसान तो नहीं है। अगर
होती तो यह दुनिया हमेशा ही आधी होती। आप बताएँ श्रीमती कौशिक, क्या आपके पति
लौट सकते हैं?
पिंकी :
मैं इंतजार कर सकती हूँ।
मुखौटा :
हाँ! दैट्स द स्प्रिट। होप फार द बेस्ट। प्रिपेयर फार द वर्स्ट।
अमित :
लेकिन सरकार! अभी नाटक शुरू होने के पहले तो हमने कहा था कि हम अमर कौशिक को
आधा घंटे का समय देते हैं। आध घंटा से ऊपर हो गया है, अब हम क्या करें।
मुखौटा :
कोई कुछ नहीं कर सकता। हम केवल एक-दूसरे को बरी कर सकते हैं। एतद्द्वारा अमर
कौशिक की मृत्यु के साथ किए गए इस करारनामे को शून्य, विधि-विरुद्ध और... नष्ट
घोषित करता हूँ। अरे कोई है?
(नाटकीय आवाज में ताली बजाता है। अमर कौशिक का अभिनय कर रहे पात्र का
उन्हीं वस्त्रों में मुखौटा पहनकर आगमन। उसके हाथ में पाँच मुखौटे हैं।
नेपथ्य से आवाज आती है - पहनो,
पहनो। मंच पर उपस्थित सभी लोग मुखौटा पहनते हैं। नेपथ्य से आवाज - होप फार
द बेस्ट,
प्रिपेयर फार द वर्स्ट।)